गुरुवार, 10 अप्रैल || स्पष्ट विवेक के साथ आत्मा की आज्ञाकारिता में चलो
- Honey Drops for Every Soul
- Apr 10
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आत्मिक अमृत अध्ययनः 1 कुरिन्थियों. 16ः 5-9, 2 कुरिन्थियों. 1ः16-20
‘परन्तु तुम्हारी बात ‘हाँ’ की ‘हाँ,’ या ‘नहीं’ की ‘नहीं’ होय क्योंकि जो कुछ इस से अधिक होता है वह बुराई से होता है। ‘ - मत्ती 5ः37
पौलुस की योजना थी कि वह इफिसुस से निकलकर सीधे कुरिंथ जाये और कलीसिया में उनकी समस्याओं को सुलझाने में कोरिंथियों की मदद करें। वहां से उन्होंने जमीन के रास्ते से मकिदुनिया, थिस्सलुनीके और फिलिप्पी की यात्रा करने और फिर से कुरिंथ लौटने की योजना बनाई और इस तरह उन्हें अपनी यात्रा का ‘‘दोहरा आनंद‘‘ देने की बात की। वे उनसे उपहार लेकर यरूशलेम जाना चाहते थे और वहां उपहार को गरीब भूखे संतों को सौंप देना चाहते थे। यह उनकी मूल योजना थी। लेकिन फिर उन्होंने अपनी योजना बदल दी और वे इफिसुस से सीधे मकिदुनिया चले गए और वहां से कुरिंथ आए, वहां एक यात्रा के बाद वे यरुशलेम और यहूदिया के लिए रवाना हो गए। कुरिन्थियों में से कुछ ने पौलुस पर यह दोष लगाया कि वे संसारियों की भाँति रहते थे, जो सुविधा के अनुसार करता था, और किसी भी प्रकार से अपनी बात रखने की जहमत नहीं उठाता था। इसलिए पौलुस ने वास्तविक स्थिति को समझाना शुरू किया - परमेश्वर की आत्मा ने यह देखने के लिए उनकी आँखें खोलीं कि परमेश्वर ने कुरिंथ में अपने कलीसिया के लिए आशीर्वाद के जो महान वादे किए थे, वे केवल तभी पूरे होंगे जब वे सीधे कोरिंथ नहीं आयेंगे, बल्कि इसके बजाय मकिदुनिया जायेंगे। आत्मा द्वारा आज्ञाकारिता और स्पष्ट विवेक से इतना आश्वस्त होकर, पौलुस ने अपनी मूल योजना बदल दी और वे कुरिंथ के बजाय मकिदुनिया चले गये। उन्होंने कहा, ‘‘लेकिन निश्चित रूप से चूंकि परमेश्वर वफादार हैं, इसलिए आपके लिए हमारा संदेश ‘‘हां‘‘ और ‘‘नहीं‘‘ नहीं है। कभी-कभी ‘‘नहीं‘‘ कहने में कोई बुराई नहीं है। हमें कई चीजों के लिए ‘‘नहीं‘‘ कहना पड़ता है। लेकिन अगर हम ‘‘हाँ‘‘ कहते हैं, तो हमें इसे पूरा करना होगा, या यदि हम ‘‘नहीं‘‘ कहते हैं, तो हमें इसे मानने की जरूरत है, पौलुस यहाँ यही कह रहे है।
प्रिय मित्रों, ईसाई होने के नाते, हमें सभी मामलों पर अपनी बात रखना सीखना चाहिए। कोई भी ईसाई हां और ना में प्रतिबद्धता नहीं दे सकता है। यह परमेश्वर के स्वभाव के विपरीत है।
प्रार्थनाः प्रिय प्रभु, जब आप ‘‘हाँ‘‘ कहते हैं तो आप इसे कभी वापस नहीं लेते है। आप कभी भी ‘‘हाँ‘‘ कहकर इसे ‘‘नहीं‘‘ न मानते है। आपके वादे हमेशा सकारात्मक वादे होते हैं। मुझे विश्वासयोग्य रहने दो और मैं जो कहता हूं उसका मतलब रखने दो - मुझे आपकी आत्मा के प्रति आज्ञाकारी होने दो और जो आप कहते हो वह करने दो। आमीन।
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